الأحد، 18 مارس 2018

مئذنة...ومحراب..بقلم المبدع // عماد الدين التونسي**

**" مئذنة...ومحراب..!"**
قِف..!
هنا... 
أطلال إنسان...
أطياف أسرى سجان...
تمهّل..!
هنا...
سُكِب الدّم الحرام..!
من سجنوا..!
من شنقوا..!
من حرقوا..!
من سحلوا..!
من دهسوا..!
تحت العجلات..!
هنا...
تلفّعت بالرايات...
جثث و أكفان..!
تمرّغ..!
في التراب الطاهر..!
فلربّما لامَست...
رفاتُ الأنقياء ..!
أمسك..!
حفنة منه...
خلّله بين أصابعك...
ففيه طُهر المسك..!
طُف بأرواحهم ...
أمّلهم بنصر...
ماأكتحلت به عيون...
ولا خفقت به قلوب...
إرفع يمناك..!
إقبض إبهامك..!
كبّر..!
حضرة الأتقياء...
وصلّي..!
على أرواحهم...
لا تستثني أحدا...
فكلّهم يستحقون الصلاة...
وقوفا للسماء..!
إنهض..!
يمّم... شطر نهر الخالدين...
وشغل الفاكهين...
إرفع..!
آية السبيل...
دليل...
جور السلاطين...
خلف أسوار السجين...
ردد..!
سلام الأنبياء...
تحسس ريحهم
شم طيبهم...
سكون وعزّة...
محراب غزة..!
ودّع..!
مئذنة الدماء..!
فلطالما صدحت بالنداء :
"أنا الشعبُ ..يا عصابةالعملاء..!"
وإمضي ِ ...شامخا..!
ذكرى... لآلاف الشهداء..!
من غادرونا...
ليعودوا...
رغم أنف الجبناء..!
ثم تهيأ..!
لست وحدك...
فشقاؤقك...
قامت...
تنفض الغبار...
وترقص أحرار...
وكن..!على العهد...
فلن تخذلَ دماء...
من فازوا مرّتان..!
مرّة إذ نالوا...
الفردوس الأعلى..!
ومرّة إذ غابوا...
عن فجور ما نرى..!
**عماد الدين التونسي**

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